परिभाषा :- धारा के प्रवाह के कारण चुम्बकीय क्षेत्र में उत्पन्न होने की घटना को धारा का चुम्बकीय प्रभाव कहते है।
चुम्बकीय क्षेत्र :-चुम्बक के चारो ओर वह क्षेत्र जिसमे चुम्बक के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है चुम्बकीय क्षेत्र कहलाता है।
1 चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा चुम्बकीय सुई से निर्धारित की जाती है
फ्लेमिंग का दक्षिण हस्त नियम :- यदि अपने दाहिने हाथ की तर्जनी,मध्यमा तथा अँगूठे को इस प्रकार फैलाइए कि ये तीनों एक दूसरे के परस्पर लंबवत हो। यदि तर्जनी चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा की और संकेत करती है। तथा अँगूठा चालक की गति की दिशा की ओर संकेत करता है। तो मध्यमा चालक में प्रेरित विद्युत धारा की दिशा दर्शाती है। इस नियम को फ्लेमिंग का दक्षिण हस्त नियम कहते है।
घरेलू विद्युत परिपथो में अतिभारण से बचाव :-विद्युत फ्यूज सुरक्षा की एक युक्ति है जिसका प्रयोग परिपथ में लगे उपकरणो की सुरक्षा के लिए किया जाता है यह तांबा ,टिन और सीसा के मिश्र धातुओ से बना होता है इसकी प्रतिरोधकता उच्च एवं गलनांक निम्न होता है फ्यूज तार की मोटाई और लम्बाई परिपथ में प्रवाहित धारा की मात्रा पर निर्भर करती है जब किसी परिपथ में अतिभारण(Over Loading )या लघुपथन (Short Circuting )के कारण बहुत अधिक धारा प्रवाहित हो जाती है तब फ्यूज तार गरम होकर गल जाता है जिसके कारण परिपथ टूट जाता है और उसमे लगे उपकरण जैसे टीवी पंखा ,बल्व आदि जलने से बच जाते है।
भू संपर्क तार :-भू-तार को घर के पास पृथ्वी में दबी धातु की प्लेट से जोड़ कर रखा जाता है। यह सुरक्षा का साधन है। और विद्युत सप्लाई को किसी प्रकार प्रभावित नही करता। धात्विक उपकरणो का भूमि से सम्पर्क होने पर पृथ्वी धारा के प्रवाह के लिए लगभग शून्य प्रतिरोध का पथ प्रदान करती है इससे धारा हमारे शरीर से नही गुजर पाती है और हम गम्भीर झटके से बच जाते है।
विद्युत मोटर :- यह एक ऐसी युक्ति है जो विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदल देती है। यह विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य नहीं करती है बल्कि विद्युत मोटर धारा के चुम्बकीय प्रभाव पर आधारित है।
बनावट :- इसकी बनावट भी विद्युत जनित्र जैसी ही होती है। अंतर केवल इतना है। की इसमें दो सर्पी वलय के स्थान पर विभक्त वलय दिक् परिवर्तक का उपयोग किया जाता है।
1 आर्मेचर :- यह सिलिकॉन स्टील पत्तियों से बना होता है इसका मुख्य कार्य चुम्बकीय बल रेखाओं का छेदन करना होता है इसमें विद्युत वाहक बल उत्पन्न होता है।
2 कम्यूटेटर :- यह हाइड्रेन तांबे का बना होता है जो AC को DC में परिवर्तित करता है आर्मेचर का एक सिरा कम्यूटेटर (P) के एक भाग से तथा दूसरा सिरा (Q) के दूसरे भाग से जुड़ा होता है। (P)व (Q)दो कार्बन ब्रुशों (X) व (Y)को स्पर्श करते है।
कार्य प्रणाली :- विद्युत मोटर में विद्युत रोधी तार की एक आयताकार कुण्डली ABCD होती है। यह कुण्डली चुम्बकीय क्षेत्र के दो धुव्रों के मध्य इस प्रकार रखी होती है। की इसकी भुजाएँ AB व CD चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत रहे। जब धारा को कुण्डली में ABCD दिशा के अनुरूप घुमाया जाता है। तो चुम्बकीय क्षेत्र कुंडली की AB भुजा ऊपर की और तथा CD भुजा नीचे की और गति करती है। यह कुंडली घड़ी के दिशा की सुई में घूमती है। आधे घूर्णन के पश्चात विभक्त वलय P कार्बन ब्रुश Y के सम्पर्क में तथा विभक्त वल्य Q कार्बन ब्रुश X के सम्पर्क में आते है। यह क्रिया कुंडली ABCD से प्रवाहित धारा की दिशा को उल्टा मोड़ देती है।
विद्युत जनित्र :- वह युक्ति जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है विद्युत जनित्र कहलाती है।
सिद्धान्त :- विद्युत जनित्र AC विद्युत चुम्बकीय प्रेरण पर आधारित है जब किसी कुण्डली को तीव्र चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाया जाता है तो कुण्डली से संबधित चुम्बकीय बल रेखाऐं की संख्या में परिवर्तन होता है जिसके परिणाम स्वरूप कुण्डली में प्रेरित धारा प्रवाहित होने लगती है धारा की दिशा फैराडे के दाहिने हाथ के नियम से ज्ञात की जा सकती है।
बनावट :- एक सामान्य ए.सी (A.C )डायनेमो के निम्न भाग है।
(a) नाल चुम्बक:- इसमें अवतलाकार किनारो वाली एक तीव्र नाल चुम्बक होती है।
(b )कुण्डली तथा क्रोड :- बहुत सारे चालक तार के चक्कर लगाकर क्रोड के ऊपर एक कुण्डली बनाई जाती है जो एक आर्मेचर पर लगी रहती है आर्मेचर चुम्बक के ध्रुवो के मध्य घूर्णन करने के लिए स्वतंत्र होता है इसको लगातार घूमाने की व्यवस्था होती है।
(c)वलय:- कुण्डली के दोनों सिरे (R1) व (R2) दो वलयो से जुड़े रहते है।
(d)ब्रुश :- वलय (R1)व (R2) से जुड़े (B1)व (B2)दो ब्रुश होते है ब्रुशों का सम्बन्ध परिपथ से कर दिया जाता है।
ब्रुशो का कार्य :- इनका मुख्य कार्य विद्युत धारा को वलय से बाहरी प्रतिरोध तक पहुँचाना है। ये कार्बन (ग्रेफाइट)के बने होते है।
नोट :- (1)यदि ब्रुश की लंबाई अपनी मूल लम्बाई के 1/3 भाग तक घिस जाती है। तो उसे बदल दिया जाता है।
(2) किसी भी DC मशीन में अधिकतम पोल 8 तथा न्यूनतम पोल 2 हो सकते है।
कार्य प्रणाली :- कुण्डली ABCD क्षैतिज अवस्था में है। जैसे कुण्डली को घुमाना शुरु करते है AB भाग आगे ऊपर की ओर व CD भाग नीचे की ओर आना आरम्भ कर देते है इससे प्रेरित धारा A से B व C से D की तरफ प्रवाहित होने लगती है जो वलय(R1)व (R2) से होकर ब्रुश (B1)व (B2) द्धारा परिपथ में चली जाती है आधे परिक्रमण के पश्चात AB व CD भाग बदल जाते है। जिसके कारण प्रेरित धारा पहले से विपरीत दिशा में प्रवाहित होने लगती है। इस प्रकार धारा का प्रवाह परिक्रमण के आधे भाग में एक तरफ व दूसरे आधे भाग में दूसरी तरफ होता है। इसलिए इस प्रकार उत्पन्न धारा प्रत्यावर्ती धारा कहलाती है।
0 टिप्पणियाँ