गुणसूत्र : केन्द्रक में पाई जाने वाली धागेनुमा कुण्डलित संरचनाओं को गुणसूत्र कहते है। इसकी खोज हॉफमिस्टर (1848) ने ट्रेडस्केन्शिया(रोहिया डिस्कलर) की परागमातृ कोशिकाओं में की। स्ट्रॉसबर्गर (1875) ने गुणसूत्र का विस्तृत विवरण दिया। क्रोमोसोम शब्द वाल्डेयर(1886)ने दिया।
* ये वंशागति के भौतिक आधार दर्शाते है।
* माप -गुणसूत्र की लम्बाई(0.5-30𝜇m)तथा व्यास 0.2-3𝜇m होता। है
* जन्तुओ की तुलना में पादपों में सामान्यतः अपेक्षाकृत बड़े गुणसूत्र होते है।
*सटटन तथा बावेरी (1902)ने स्वतंत्र रूप से वंशागति के गुणसूत्र सिद्वान्त का प्रतिपादित किया।
संरचना : उच्च विकसित पादपों एवं जन्तुओ की जाति विशेष में निनिश्चित संख्या होती है।जैसे मनुष्य में 23 जोड़े या 46 गुणसूत्र पाये जाते है। किसी भी कोशिका में (युग्मकों को छोड़कर) जोड़े में पाये जाते है। जिसमे में से एक मादा का तथा दूसरा नर का होता है।गुणसूत्रअगुणित सेट को जीनोम कहते है।एक प्रारूपिक गुणसूत्र में सबसे बाहर की और एक प्रोटीन आवरण पाया जाता है। जिसे टलीकल कहते है। प्रोटीन आवरण के अन्दर की और 6 भाग पाये जाते है।
a अर्द्ध गुणसूत्र : गुणसूत्र में दो लम्बवत भाग दिखाई देते है।जीने अर्द्धगुणसूत्र कहा जाता है। ये दो अर्ध गुणसूत्र एक बिन्दु द्वारा जुड़े रहते है। जिसे सन्ट्रोमीयर कहते है। प्रत्येक अर्द्धगुणसूत्र में एक DNA का अणु पाया जाता है।जिसे क्रोमेटिन कहते है।
b क्रोमोमीयर : क्रोमेटिन के ऊपर बिन्दुनुमा संरचना पाई जाती है।जिने क्रोमोमीयर कहते है।
c गुणसूत्र बिन्दु : गुणसूत्र के बीच में या किनारों की तरफ एक प्राथमिक सर्कण पाया जाता है। जिसे सेन्ट्रोमीयर कहते है।
d द्वितीयक सकीर्णन : केन्द्रक में एक जोड़ी गुणसूत्र पर प्राथमिक सकीर्णन के अतिरिक्त एक ओर सकीर्णन पाया जाता है।जिसे द्वितीयक सकीर्णन कहते है।
e सेटेलाइट : गुणसूत्र में द्वितीयक सकीर्णन के पश्च भाग की ओर पाया जाने वाला छोटा गुणसूत्रीय भाग सेटेलाइट कहलाता है।
f टीलोमीयस : गुणसूत्र के दोनों छोर अन्तः खण्ड टीलोमीयर कहलाते है।
गुणसूत्र का रासायनिक संघटन : गुणसूत्र में निम्नलिखित रासायनिक पदार्थ पाये जाते है।
* न्युक्लिक अम्ल,DNA एवं RNA
* प्रोटीन -क्षारीय प्रोटीन, स्टोन प्रोटीन, अम्लीय प्रोटीन।
* खनिज लवण एवं आयन -जैसे कैल्सियम, मैगनीशियम,सोडियम।
आकृति के आधार पर गुणसूत्र के प्रकार : गुणसूत्रीय भुजाओं का सेन्ट्रोमीयर से जुड़ने पर विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ बनती है। जो निम्न चार प्रकार की होती है।
(1) मध्य केन्द्री : इसमें गुणसूत्रीय भुजाये सेन्ट्रोमीयर से V की आकृति में जुड़ती है। अर्थात इसमें दोनों भुजाओं की लम्बाई बराबर होती है।
(2) उपमध्य केन्द्री : इसमें दो असमान लम्बाई की गुणसूत्र भुजायें गुणसूत्र बिन्दु पर 90º के कोण पर जुड़ी रहती है। जिससे L आकृति का निर्माण होता है।
(3) उपअन्तः केन्द्री : इसमें दो असमान गुणसूत्रीय भुजायें गुणसूत्र पर एक सीधी रेखा में जुड़े रहते है।जो एक छड़ की आकृति का निर्माण करती है।
(4) अन्तःकेन्द्री : इसमें केवल एक गुणसूत्रीय भुजा होती है जो गुणसूत्र बिन्दु से एक सीधी रेखा में जुड़ी रहती है। जिससे i आकृति बनती है।
गुणसूत्र के कार्य : 1 गुणसूत्र आनुवांशिक गुणों के वाहक होते है। क्योंकि इनमें आनुवांशिक पदार्थ DNA पाया जाता है।
2 गुणसूत्र में पाये जाने वाले जीन सभी जैविक कार्य का नियंत्रण करते है।
3 गुणसूत्र में उपस्थित जीन प्रोटीन संश्लेषण की सूचनायें सकलन का कार्य करती है।
4 गुणसूत्र कोशिका विभाजन में सक्रिय योगदान करते है।
5 गुणसूत्र प्राणियों में विभिन्ता उत्पन्न करते है।
गुणसूत्रों के प्रकार : गुणसूत्र निम्न दो प्रकार के होते है।
①अलिंगी गुणसूत्र : ऐसे गुणसूत्र जो प्राणी की कायिक संरचना का नियंत्रण करते है। अलिंगी गुणसूत्र कहलाते है। मनुष्य में 23जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते है।जिसमे से 22 जोड़ी गुणसूत्र अलिंगी गुणसूत्र होते है। कुल गुणसूत्र 46 = 23जोड़े (22 +XX मादा ,22+XY नर )
②लिंगी गुणसूत्र : ऐसे गुणसूत्र जो प्राणी में लिंग का निर्धारण करते है। लिंगी गुणसूत्र कहलाते है। मनुष्य में 23 जोड़ी गुणसूत्र में से 1 जोड़ी लिंगी गुणसूत्र होता है।इसमें यदि XX गीउनसूत्र होते है तो मादा औरXY गुणसूत्र हो तो नर प्राणी का निर्माण होता है।
विशिष्ट प्रकार के गुणसूत्र : ऐसे गुणसूत्र जो सामान्य गुणसूत्रों के अतिरिक्त जटिल संरचना युक्त होते है।इन्हे विशिष्ट गुणसूत्र कहते है। ये दो प्रकार के होते है।
❶ पॉलिटीन गुणसूत्र या लार ग्रंथि गुणसूत्र : यह विशिष्ट संरचना वाले गुणसूत्र होते है। इनकी खोज बॉलिबयानी ने (1881)में डिप्टेरियन कीट के काइरोनोमस लार्वे की लार ग्रंथि की कोशिकाओं में की। पॉलिटीन गुणसूत्र शब्द कॉलर तथा कॉलिंग ने दिया। इन गुणसूत्रों में DNA की अधिकता होती है जिस कारण इन्हे महा गुणसूत्र कहते है इन गुणसूत्रों में क्रोमेमेटा की संख्या अन्तः पुन द्विगुणन द्वारा बढ़ती रहती है। इस प्रकार के गुणसूत्रों में गहरी वह हल्की पट्टिया पाई जाती है। तथा कही पर फूले हुये भाग पाये जाते है। जिने पफ कहते है। इन पफ वाले स्थान पर M.RNA का निर्माण होता है। इस प्रकार के गुणसूत्र का मुख्य कार्य जीन का स्थान निर्धारण तथा गुणसूत्र के संरचनात्मक परिवर्तन को पहचाने का होता है।
ये,मैल्पिघियननलिकाओं,भूणपोष,प्रतिमुखी,कोशिकाओं, ड्रोसोफिला की लार ग्रंथिओं में भी पाये जाते है।
❷लैम्पब्रुश गुणसूत्र : कुछ जन्तुओं में लैम्प की ब्रुश की आकृति के समान गुणसूत्र पाये जाते है। जिन्हे लैम्पब्रुश गुणसूत्र कहलाते है।इन्हे सबसे पहले फ्लेमिंग (1882)ने प्रेक्षित किया। रुकर्ट (1892)ने इनका वर्णन किया। ये मुख्य रूप से शुक्राणु कोशिका तथा कुछ पादपों की कोशिकाओं में भी पाये जाते है।
इस प्रकार के गुणसूत्रों की यह विशेषता होती है। की इनमे लूप के आकार की संरचना पाई जाती है। जो गुणसूत्र अक्ष के दोनों ओर स्थित होते है। इसलिए इनकी आकृति लैम्प ब्रुश के समान दिखाई देती है। इनका मुख्य कार्य पीतक का निर्माण,प्रोटीन तथा RNA संश्लेषण का होता है।
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