बीज का विकास । seed development

 बीज का विकास (seed development) :- द्धिनिषेचन के पश्चात भ्रूण कोश में भ्रूण एवं भ्रूणपोष का परिवर्धन होता है। इसके साथ ही सम्पूर्ण बीजाण्ड एक बीज के रूप में विकसित होता है। इस समय बीजाण्ड में परिवर्तन होता है। जैसे - बीजाण्डकाय के दोनों अध्यावरण बीजाण्ड आवरण का निर्माण करते है। जिसमे बाह्य अध्यावरण से बाह्य बीजावरण जिसे टेस्टा तथा भीतरी आवरण से आन्तरिक बीजावरण जिसे टेगमेन कहते है। बीजाण्ड वृन्त बीज का वृन्त बनाता है। 

कुछ पौधों के बीजों में बीजाण्ड के चारों ओर एक आवरण मिलता है। जिसे एरिल कहते है। जैसे - लीची इसी प्रकार प्रांकुर मूल के पादपों में बीजाण्ड द्धार वाले छोर पर एक सफेद रंग की संरचना पाई जाती है। जिसे करेंकर कहते है। उदाहरण - अरण्ड तथा अधिकांश एक बीजपत्री पादपों में बीजाण्ड द्धार वाले छोर पर प्लगनुमा संरचना पाई जाती है। जिसे ऑवरकुलम कहते है।  

❖ भ्रूणपोष की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर बीज दो प्रकार के होते है।  

(1) अभ्रूणपोषी बीज :- भ्रूण के विकास के दौरान भ्रूणपोष का पूर्णतया उपभोग हो जाता है। इस प्रकार के बीज अभ्रूणपोषी होते है। जैसे - द्धिबीजपत्री (चना,मटर,मूँगफली)   

(2) भ्रूणपोषी बीज :- एक बीजपत्री तथा द्धिबीजपत्री में भ्रूण सम्पूर्ण भ्रूणपोष का उपभोग नहीं करता है। इस कारण यह परिपक्व बीज में भी पाया जाता है। ऐसे बीजों को भ्रूणपोषी बीज कहते है। 

परिभ्रूणपोषीय बीज :- निषेचन के पश्चात भ्रूण द्धारा भोजन के अवशोषण के कारण अधिकांशतः बीजाण्डकाय का उपयोग हो जाता है। बीज में शेष बचे बीजाण्डकाय को परिभ्रूणपोषीय कहते है। जैसे :- पाइनस,काली मिर्च।  

❖ नोट :- बीज का अध्ययन स्पर्मोलॉजी कहलाता है। 

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